स्यामघन दामिनि प्रगट भई॥
रस-नृप रसिक-रिझावनि पावनिरया सुरसमई।
अंग-अंग अतुलित श्री-शोभा कोटिक रति लजई॥
सकल-विस्व-आकर्षक-अकर्षिनि छबि सौंदर्य छई।
नित्य पराजित रहत सहज जो अखिल जगत बिजई॥
परम सती प्रिय-सुख-कामिनि नित निज सुख बिसरि गई।
रूप-रासि गुन-रासि अमित सुचि प्रगटत नई-नई॥