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झीने भरोसे पर / रमेश रंजक
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15:00, 20 जुलाई 2014
सिमटता धूप का आँगन
अन्धेरा झर रहा छन-छन
तुम्हीं कह दो कि कब तक दूँ तसल्ली —
अनमने जी को ।
खड़ी हूँ मूर्त्ति-सी प्रियवर
इसी झीने भरोसे पर
कि पल भर देख लो तुम अधजली इस —
मोमबत्ती को ।
</poem>
अनिल जनविजय
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