झीने भरोसे पर / रमेश रंजक
किसी अतुकान्त कविता-सी
हमारी ज़िन्दगी प्यासी
तुम्हारे छन्द में बँध जाए तो जानूँ —
कि तुम भी हो ।
मिलन की पँक्ति क्यों छोटी
विरह की दूर तक फैली
सुबह से प्रश्न-सी पथ पर
झुकी है दृष्टि मटमैली
सिमटता धूप का आँगन
अन्धेरा झर रहा छन-छन
तुम्हीं कह दो कि कब तक दूँ तसल्ली —
अनमने जी को ।
थके मज़दूर-सा तम
खटखटाता बन्द दरवाज़े
तुम्हें आवाज़ पर आवाज़
देते घाव ये ताज़े
खड़ी हूँ मूर्त्ति-सी प्रियवर
इसी झीने भरोसे पर
कि पल भर देख लो तुम अधजली इस —
मोमबत्ती को ।