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09:21, 3 मई 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार सौरभ
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<poem>
दर्द सुलगता है
चोटिल मन की भट्टी में
टहकता है जैसे किसी ने दाग दिया हो तपे लोहे से
तब बंद कमरे में ख़ुद ही बनाता हूँ मरहम
दिखाता हूँ ख़ुद को सब्जबाग
फिर दरवाज़ा खोलकर मैं नहीं
मेरा हमशक्ल निकलता है
और परोसता है ख़ुद को ऐसे
जैसे दुनिया का सबसे ख़ुशनसीब हो
कवि हूँ
दर्द से हारूँगा नहीं
उसे भटका दुँगा शब्दों के जंगल में ।
</poem>
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