भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समझौता / कुमार सौरभ

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दर्द सुलगता है
चोटिल मन की भट्टी में
टहकता है जैसे किसी ने दाग दिया हो तपे लोहे से

तब बंद कमरे में ख़ुद ही बनाता हूँ मरहम
दिखाता हूँ ख़ुद को सब्जबाग
फिर दरवाज़ा खोलकर मैं नहीं
मेरा हमशक्ल निकलता है
और परोसता है ख़ुद को ऐसे
जैसे दुनिया का सबसे ख़ुशनसीब हो

कवि हूँ
दर्द से हारूँगा नहीं
उसे भटका दूँगा शब्दों के जंगल में ।

शब्दार्थ
<references/>