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|संग्रह=धंवर पछै सूरज / निशान्त
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<poem>
बात नुंई पीढ़ी रै
भण्यै-गुण्यै लोगां री नीं करूं
जूनी पीढ़ी रै
स्याणैं-माणैं लोगां री करूं
जका सत्संगी ई होया करता

जकां रो खान-पान सादो
अर बिच्यार ऊँचा हा

बै ई बै’ग्या
‘भोगवाद’ री आंधी में
बां रो ओखौ होग्यो रैणों
कच्चै कोठां में
सूती गाभा में

ब्या‘व-सादी ई बानै
सादी दाय नीं आवै
बै बेटी सदां ई औकात
सूं ऊँची जिग्यां परणावै
और तो और बै होको छोड़’र
बीड़ी-पीणो तो चलो
कीं माड़ो कोनी
पण बै तो करजाऊ रैवण लागग्या।
</poem>
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