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कहीं तेरी परछाई खड़ी है, कहीं तेरी अँगड़ाई है
वैसे घर में कोई नहीं है कहने को तन्हाई है

होंठ जहाँ रख देते हो तुम पड़ जाता है दाग़ वहीं
होंठ नहीं हैं शमअ की लौ है उफ़ कितनी गरमाई है

ठंडे- ठंडे शीर से मेरा सारा आँगन भीग गया
या वो आया है छत पर या चाँद से बारिश आई है

कौन सा पत्ता किस डाली का है हमको मालूम नहीं
पतझड़ ने जंगल में अब के वो आँधी बरसाई है

टूटे दिल का बोझ उठना अपने बस की बात नहीं
हमने तो अपने जानिब से पूरे जान लगाई है
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कुछ इस तरह से हमने जवानी तबाह की
जिसने सुना उसी ने बहुत वाह वाह की

नेकी ने पाल पोस के जिसको जवाँ किया
वो हुस्न हो गया है अमानत गुनाह के

यूँ ज़िन्दगी के बोझ से काँधे छिले रहे
ढोई है जैसे पालकी आलमपनाह की

ऐसा भी वक़्त था कोई छोटा बड़ा न था
वो रौशनी किसी ने तो आख़िर सियाह की

वो हुस्न जैसे हो कोई शायर की ग़ज़ल
वो नाज़ जैसे ज़िद हो किसी बादशाह की
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