गृह
बेतरतीब
ध्यानसूची
सेटिंग्स
लॉग इन करें
कविता कोश के बारे में
अस्वीकरण
Changes
सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप / ज़ाहिद अबरोल
13 bytes removed
,
17:38, 17 अक्टूबर 2015
जो डसता है अक्सर उसको दूध पिलाया जाता है
कैसी बेहिस<ref>अनुभूति शून्य, निस्पृह, चेतना शून्य</ref> दुनिया है यह छाँव के ही गुन गाए धूप
<ref></ref>
तेरे शह्र में अबके रंगीं चश्मा पहन के आए हम
{{KKMeaning}}
<
/
poem>
द्विजेन्द्र 'द्विज'
405
edits