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09:52, 13 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|अनुवादक=
|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>फिर अजायबघरों में खड़े लोग हैं
मोम की पुतलियो की
नुमायश लगी
अक्स हैं धूप के
आयनों की ठगी
बंद शो-केस में - ये बड़े लोग हैं
सीपियों के महल
ड्योढ़ियाँ शाह की
रेत के फासले
खोज है छाँह की
खूब दीवार पर ये जड़े लोग हैं
रेशमी रस्सियों से
बँधे पाँव हैं
लाख की बस्तियों के
जले ठाँव हैं
भूख के-प्यास के आँकड़े लोग हैं
</poem>
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