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10:00, 13 दिसम्बर 2015 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार रवींद्र
|अनुवादक=
|संग्रह=चेहरों के अन्तरीप / कुमार रवींद्र
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<poem>आग-पानी
फिर बया के घोंसले में
नदी को घेरे खड़ीं
जलती चिताएँ
टूटकर गिरने लगीं
अंधी शिलाएँ
कई क़ातिल छेद हैं
इस नाव के बूढ़े तले में
एक सूरज हाँफकर
चुप हो गया है
चोंच का दाना गिरा
फिर खो गया है
कौन बोले
पड़ा है फंदा हवाओं के गले में
</poem>
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