भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आग-पानी घोंसले में / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
आग-पानी
फिर बया के घोंसले में
नदी को घेरे खड़ीं
जलती चिताएँ
टूटकर गिरने लगीं
अंधी शिलाएँ
कई क़ातिल छेद हैं
इस नाव के बूढ़े तले में
एक सूरज हाँफकर
चुप हो गया है
चोंच का दाना गिरा
फिर खो गया है
कौन बोले
पड़ा है फंदा हवाओं के गले में