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16:31, 16 सितम्बर 2016 {{KKGlobal}}
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| रचनाकार= दीपक शर्मा 'दीप'
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<poem>
उसकी मर्ज़ी का भी थोड़ा करना है
अपनी मर्ज़ी से भी हमको लड़ना है I
लुटने वाले लुटकर भी खुश बैठे हैं
लूट गया जो उसको काफ़ी भरना है I
होना होगा , जो भी होगा , देखेंगे
इतना भी क्या यारों उससे डरना है I
कितनी भी सूखी हो आँखें सदियों से
लेकिन इतना तय है उनमें झरना है I
एक बार ही मर जाओ ना 'दीप' मियाँ
रोज़-रोज़ का मरना , कोई मरना है ?
</poem>