Changes

खण्ड-6 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

14 bytes removed, 09:55, 25 दिसम्बर 2016
‘‘अमरेन्दर क्या बोल रहे हो, इससे क्या होता है
उस कविता से क्या होना है, जिसमें मन रोता है
चारों ओर चिताओं की दुर्ग ंधदुर्गन्ध, धुआँ है उठता
यह तो ज्ञात तुम्हें भी इसमें मन कितना है घुटता
सहमे-सहमे घाट, वृक्ष पीपल के; डरी हवाएँ
फिर कहते हो, लिखता हूँ मैं नर का मान बढ़ाने
या आए हो वेदी पर अपना कत्र्तव्य चढ़ाने
बनना है तो बुद्ध बनो; कर्मो का शुद्ध पुजारी
क्या कविता को बाँच रहे, भावों का बने भिखारी
इससे न तो धरा सजेगी, स्वर्ग नहीं उतरेगा,
क्या समझे हो, कविता से कलियुग का दैत्य मरेगा
यह तो अपने मन को ही बहलाने का साधन है
कविता तो कायर लोगों की सम्पत्ति है, धन है ।’’है।’’
‘‘कहते जाओ, जो भी मन में आए, मैं सुन लूंगा
इसीलिए मैं लगा हुआ हूँ, कवि होऊँ मैं मन से
अमृत की बूँदें तो चूवे ऊपर नील गगन से ।
 
‘‘कविता है अमृत की बूँदें, पी कर धरा अमर है
ऐसा ही बस, जी पराग को छूने को ललचाए
अगर कहीं फिर जीवन हो भी, तो उससे क्या लेना
जो प्रत्यक्ष है काल, उसी का जग यह चना-चबेना ।चबेना।
‘‘कैसा होगा वह विवत्र्त वायु का चक्राकार
कहीं बिगड़ने पाए न यह बनी हुई है जो रचना
मुझसे न आहत हो जाए, जो कुछ दृश्य अनोखा
नीलगगन से उतर धरा पर विचरे यह पनसोखा ।पनसोखा।
‘‘सृजन-नाश के ग्रास-कौर सब, मुझको भी है चलना
जन्म-मृत्यु के बीच ला मुझे, पागल कौन बनाता
दुख से भरा हुआ यह जीवन; एक प्रश्न ज्यों शेष
कब तक यूँ ही खड़ा रहूंगा लिए बिजूका भेष । भेष।
‘‘यह मेरा अवसाद मुझे कितना एकान्त कर देता
घर-आँगन भूतों का डेरा, बुझी हुई संझवाती
लेकिन कविता ही ऐसी है, दुख को पचा-पचा कर
मेरे साथ चला करती है, मुझको बचा-बचा कर ।’’कर।’’
</poem>
Mover, Protect, Reupload, Uploader
6,574
edits