भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खण्ड-6 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘‘अमरेन्दर क्या बोल रहे हो, इससे क्या होता है
उस कविता से क्या होना है, जिसमें मन रोता है
चारों ओर चिताओं की दुर्गन्ध, धुआँ है उठता
यह तो ज्ञात तुम्हें भी इसमें मन कितना है घुटता
सहमे-सहमे घाट, वृक्ष पीपल के; डरी हवाएँ
सन्नाटे का शोर भयावह: कितना तुम्हें बताएँ
फिर कहते हो, लिखता हूँ मैं नर का मान बढ़ाने
या आए हो वेदी पर अपना कत्र्तव्य चढ़ाने
बनना है तो बुद्ध बनो; कर्मो का शुद्ध पुजारी
क्या कविता को बाँच रहे, भावों का बने भिखारी
इससे न तो धरा सजेगी, स्वर्ग नहीं उतरेगा,
क्या समझे हो, कविता से कलियुग का दैत्य मरेगा
यह तो अपने मन को ही बहलाने का साधन है
कविता तो कायर लोगों की सम्पत्ति है, धन है।’’

‘‘कहते जाओ, जो भी मन में आए, मैं सुन लूंगा
कभी मिला जो समय अगर तो इसका उत्तर दूंगा
अभी तो मैं अपनी वाणी को शील दे रहा सचमुच
क्या होती कविता की ताकत समझ रहा हूँ कुछ-कुछ
कितना दुख होता है भावों को कविता में लाना
मेंढ़ भगवती का क्या होता इतना सहज उठाना
मुत्र्ति खड़ा करने में कवि को सब कुछ खोना होता
एक बार हँसने को उसको सौ-सौ रोना होता
उस निर्मल क्षण के बारे में तुम कैसे जानोगे
बोलूँगा मैं लाख, मगर तुम कभी नहीं मानोगे
लेकिन सच है, भाव दशा में जब भी कवि है आता
शुद्ध, दिव्य, आलोक, मूल्य, विभु, इतना ही रह जाता
तब उठता है कमल काव्य का मानसरोवर मन से
उठती है जो आग; सुरभिमय होती है, चन्दन से
कविता ही है धूप शिशिर की, और चाँदनी तम में
यह समाधि की दिव्य ज्योति है, जगती उसी चरम में
कविता का वाचन; फिर से है छूना दिव्य क्षणों को
कितना सुख देता है मन में रखना ओस-कणों को
और नहीं तो क्यों युग-युग से जन खोया कविता में
पूछ रहे हो क्यों मुझसे; क्या तेज प्रखर, सविता में ?
कविता है वह किरण सूर्य की, उजियाले की माँ है
इसकी विभूति के बारे में बोलूं क्या, कहाँ-कहाँ है
जहाँ कहीं भी स्वच्छ भाव है, निर्मल जन है, भव है
समझो कि कविता बसती है, चिड़ियों का कलरव है
कविता जहाँ-जहाँ जायेगी, कवि का राज बसेगा
कोलाहलमय युग के मन में सुर का भुवन बसेगा
इसीलिए मैं लगा हुआ हूँ, कवि होऊँ मैं मन से
अमृत की बूँदें तो चूवे ऊपर नील गगन से ।

‘‘कविता है अमृत की बूँदें, पी कर धरा अमर है
इसीलिए तो दुष्टभाव का भी कमजोर समर है
मेरा वश जो चले सभी को कवि कर डालूूँ पल में
देवकर्म दिखता है मुझको इस प्रयास निश्छल में
इसीलिए तो जहाँ-जहाँ कवि, वर्षो ं में रम जाता
घर-बच्चों से दूर-दूर वीराने में थम जाता
इसी मोह में कभी ठीक से ध्यान टिका ना घर पर
एक अकेली विभा संभाले थी दीवारें जर्जर
उसका ही साहस था जो गोबर्द्धन छत्रा बना था
सचमुच में विपदाओं का वह बादल सघन घना था
गोकुल तो बच गया, मगर है शेष चिद्द संकट के
बासी अभी नहीं वे लगते, सब लगते हैं टटके
सबका सह कर, सबको खुश रखना क्या बहुत सरल है
सुख की चाहत में मंथन से निकला हुआ गरल है
उसके दुख का सहभागी मैं कभी नहीं हो पाया
कलियुग को कंधे पर ढोते कलियुग तक मैं आया
मन में सत्, द्वापर, त्रोता की चाहत घुटी-घुटी-सी
जन्म-जन्म की बातें तो दादी की जड़ी-बुटी-सी
मूर्छित-सा मन, बोध, आत्मा; धूमिल गति चीजों की
धूमिल-धूमिल-सी भी है पहचान सभी बीजों की
मन की गति निर्वीज बनी है, यह भी सही नहीं है
संप्रज्ञात दशा में मैं हूँ, यह भी नहीं-नहीं है
क्षिप्त, मूढ़ की भूमि-पंथ का लगता पथिक अकेला
कैसा है यह ठौर-ठौर पर यह विक्षिप्त का मेला
यहाँ पहुँच कर चाहा है, मन को समेट कर रख लूँ
क्या होता कैवल्य-स्वाद है, उसको जी भर चख लूँ
लेकिन तब ही विषयों की सुखमणि में मन दिखलाता
जहाँ पहुँचना चाहूँ, उस तक कहाँ पहुँच मैं पाता
वही क्षिप्त की भूमि, वही फिर इच्छाओं का राज
जमे चित पर संस्कार का उड़ता क्रोधित बाज
फिर तो वही, कि रह-रह कर ही अभिनिवेश जगता है
राग द्वेष के कोलाहल में मन का मन लगता है
भ्रम विद्या का भले कहो, पर बोध यही है मन का
जितना-सा है मोल राख का, उतना ही कंचन का
कंचन तो फिर भी कंचन है, राख भले उड़ जाए
जितना कि यम-नियम नहीं, यह जग ज्यादा ललचाए
जग को राख नहीं कह सकता, जग तो सदा रहेगा
मुझमें जो कुछ है, आखिर में उससे नहीं मिलेगा ?
बोलो, ऐसे में उससे क्यों आँखें मोड़ चलूँ मैं
छोटे-से जीवन में छोटा रिश्ता तोड़ चलूँ मैं
था मेरा कत्र्तव्य, जगत के दुख को मैं कम करता
जहाँ-जहाँ पर असम दृष्ट है, उसको मैं सम करता
भव में लीन बना, लोगों को भावलीन कर पाता
जो प्रत्यक्ष है ज्ञान बोध से, सत्य वही; समझाता
अनुमानों के पीछे-पीछे किस हद तक मैं भागूं
शंकाओं के झोल-झाल को अभी तुरत ही त्यागूं

रंग, रूप, रस, गंध, शब्द सब जागे अतल-वितल से
दिशा-काल सब खुले-खुले हों, सर में खिले कमल-से
लेकिन मुझसे हुआ नहीं कुछ, ग्रसित रहा संशय से
और भला उम्मीद करूँ क्या चैसठ के इस वय से
देख रहा हूँ घर है, लेकिन घर का पता नहीं है
दीवालें हैं, दीवालों पर सर का पता नहीं है
क्या होगा, जब शिशिर, ग्रीष्म चुपके से आयेंगे
गये चैत के दिन, पावस के घन ही पायेंगे
जो होना है हो जाए; जो हुआ, नहीं वह होगा
क्या उसको लिख पाऊँगा मैं, जो कुछ मैंने भोगा
कितना कुछ लिखना चाहा था सब कुछ रहा अधूरा
आगे का भी जन्म नहीं है जो कि होता पूरा
क्या सचमुच में संस्कार नवजीवन ले कर आता ?
अभिनिवेश के पीछे यह क्या झिलमिल-झिलमिल होता
क्रीड़ा है मणि पर प्रकाश का, कुछ भी और नहीं है
जो कुछ ज्ञेय, वहाँ से आगे कुछ भी ठौर नहीं है
मन के शिशु की खातिर ये सब, जैसे खेल-खिलौना
कब तक कहो केशरी आगे उछले यह मृगछौना
और कहाँ फिर वह ही होगा, शून्य नहीं कुछ आगे
मुट्ठी भर तो विभव मिला है, कितना क्या कुछ त्यागे
जी भर देखूँ फूलों को, रस खूब अघाकर पी लूँ
सुनूँ सुरों को पंखुड़ियों के, ज्यों जीते सुर, जी लूँ
गंध सुवासित फूलों की उन्मादित करता जाए
ऐसा ही बस, जी पराग को छूने को ललचाए
अगर कहीं फिर जीवन हो भी, तो उससे क्या लेना
जो प्रत्यक्ष है काल, उसी का जग यह चना-चबेना।

‘‘कैसा होगा वह विवत्र्त वायु का चक्राकार
जिसमें पड़ कर लगा घूमने होगा जड़ संसार
वैसे क्षण में पड़ कर जल जब ज्वार उठता होगा
कैसा भीषण कोलाहल का रास रचाता होगा
आलोड़न-आघातों से तब फूटी होगी ज्वाला
सबने मिल कर नये-नये लोकों को ही रच डाला
जिसमें वायु, सलिल, क्षिति, पावक-शोर समाया सम था
गूंज रहा था एक नाद बस ज्यादा या तो कम था
अब तक भी है उसी रूप में, बीज-वृक्ष का खेला
अपने गुण के कारण ही यह जन्म-मृत्यु का मेला
चित्त सलिल की चंचलता जो रुके, रूप प्रतिबिम्बित
इस्थिर मन है देखा करता सारा दृश्य विलम्बित
संघातों और सृजन क्षणों को रुद्र कहो, शिव कह लो
तुममें अक्षर का समुद्र है, जितना चाहो बह लो
जिसको जो भी नाम मिला, वह खुश है उसको पाकर
लेकिन कितना कहो कठिन है, जाना वचन निभा कर
जो मिट जाता, मिट जाता है, उसको भूल न पाता
कहाँ निकल सकता हूँ इससे, जितना जोर लगाता
इस छोटे-से जीवन का तब मोल यही है, इतना
कहीं बिगड़ने पाए न यह बनी हुई है जो रचना
मुझसे न आहत हो जाए, जो कुछ दृश्य अनोखा
नीलगगन से उतर धरा पर विचरे यह पनसोखा।

‘‘सृजन-नाश के ग्रास-कौर सब, मुझको भी है चलना
आने-जाने की बातें तो केवल खुद को छलना
निकल रहा जो शून्य विवर से, शून्य विवर में शेष
उसके बाद कहाँ फिर गति है, किस माया का भेष
आओ, जो उत्सव है जग का, मिलकर उसे मनाएँ
जिसको भूल गये हैं हम सब, उस बाउल को गाएँ
दुख है मुझको इसी बात का, गाया गया न बाउल
मुझको फिर क्यों याद करेगा, जग के मानव का कुल
दुख में देता साथ किसी को, यह तो कभी हुआ न
आग भला मैं कैसे छूता, जल को कभी छुआ न
सुख में भी तो साथ रहा न, घर में घर से दूर
अब तो जो कुछ शेष बचा है, वह सब चकनाचूर
मुझको क्या अधिकार भला है, जग की कमी गिनाऊँ
यह भी तो बेकार ही होगा, अपनी व्यथा सुनाऊँ
जग है, तो फिर हर्ष कहाँ है, जो है यहाँ व्यथा है
जीवन तो आखिर तक चलती दुख की एक कथा है
इन्हीं दुखों के बीच नरों को आखिर तक चलना है
आँखों में आँसू को ले कर हिम पर ही गलना है
यही बहुत है, कुछ यादे हैं, बीते हुए दिवस की
रेखाएँ कुछ खिंची हुई-सी रूप-गंध की, रस की
बचपन के दिन, घर का आंगन, घर के पीछे पोखर
नदी किनारे बंसविट्टी में पत्तों का वह हर-हर
दस गाँवों का एक थान वह देवी का, मिट्टी का
वे दिन भी क्या दिन थे, खेला मेल और कुट्टी का
ध्यान-धारणा में, समाधि में आते हैं वे दिन
मन करता है ढोल बजाऊँ ताक-धिनक-धिन-धिन
लेकिन हँसने-गाने से पहले ही रो पड़ता हूँ
अपने ही पाँवों में रह-रह काँटों-सा गढ़ता हूँ
शून्य गगन में ताराओं का जलता-सा संसार
फिर तो मन की वही बेकली, मन के प्रश्न हजार
अभी-अभी तो जीवन मेरा हँसता था, सुख देता
अब ऐसी क्या बात हुई जो ऐसा है दुख देता
जी में आता है रह-रह कर माहुर हो, तो पी लूँ
मृत्यु मुझे चुपचाप ले चले ऐसा जीवन जी लूँ
कोई ताप न व्यापे तन को, कोई शोर नहीं हो
रुकने, थमने-ललचाने का कोई जोर नहीं हो
हवा, आग, पानी, मिट्टी के कंधे पर चढ़ डोलूँ
अन्तरिक्ष में फूंक मार कर कविता का रस घोलूँ
जब-जब ऐसा जी करता है, कौन खींच ले आता
जन्म-मृत्यु के बीच ला मुझे, पागल कौन बनाता
दुख से भरा हुआ यह जीवन; एक प्रश्न ज्यों शेष
कब तक यूँ ही खड़ा रहूंगा लिए बिजूका भेष।

‘‘यह मेरा अवसाद मुझे कितना एकान्त कर देता
‘मैं दुनिया में व्यर्थ अकेला’, भाव यही भर देता
पहले भूल यही मैं जाता, जीवन यह है उत्सव
इतने ये त्योहार-पर्व क्यों ? बना रहे यह कलरव
नाते-रिश्ते का यह मेला इसीलिए तो लगता
शीतल हो जाए पावस-सा यह अवसाद सुलगता
तीरथ-वैरागन ये क्या हैं ? दुख का भार घटाने
मन पर छाये घोर तमस को हँस कर उसे मिटाने
गढ़ कर देवों के रूपों को, लीन उन्हीं में होना
उनके सम्मुख हँसना-गाना, गाते-गाते रोना
देता है यह मुक्ति दुखों से, यही मुक्ति-निर्वाण
वह समाधि है, जो तापों से प्राणों को दे त्राण
मेरा यह अवसाद सत्य से दूर भ्रान्त कर देता
अपनों के संग रहना चाहूँ पर एकान्त कर देता
सबका रूप भयानक लगता, सबसे मैं डर जाता
मेरे प्राणों का याचक है, बन कर खड़ा विधाता
उठता रहता एक दृश्य है, आँखों में यह बरबस
तने हुए हैं मुझ पर सीधे तीर-धनुष और तरकस
हिरनौटा जो खड़ा हुआ है, घोर प्यास से बेकल
दूर-दूर तक बिछे हुए हैं रेत, सुलगता मरुथल
एक चीख उठती है, देखूँ वृक्ष वहाँ उग आता
उसमें एक पुष्प ऐसा है, ऊपर उठता जाता
इतना ऊपर कि सूरज से आँख मिलाना चाहे
शून्य गगन की ऊँचाई को नील विहग ज्यों थाहे
और उधर से चढ़ता आता सौ हाथों का मणिधर
जला हुआ है नील पुष्प वह, बचा हुआ है खोड़र
ऐसे में कविता भी मेरी दूर चली है जाती
घर-आँगन भूतों का डेरा, बुझी हुई संझवाती
लेकिन कविता ही ऐसी है, दुख को पचा-पचा कर
मेरे साथ चला करती है, मुझको बचा-बचा कर।’’