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घनाक्षरी / मिलन मलरिहा

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<poem>
::::(1)

नष्ट झिनकरा संगी, रुखराई वन बन
::::जीवजन्तु कलपत, सुनले पुकार रे।
प्राण इही जान इही, सुद्ध हवा देत इही
::::झिन काट रुखराई, अउ आमाडार रे।
कल-पत हे चिराई, घर द्वार टूटे सबो
::::संसो-छाए लईका के, आंसु के बयार रे।
जीव के अधार इही, नानपन पढ़े सबो
::::आज सबो पढ़लिख, होगे हे गवार रे!

::::(2)

पर घर नास कर, छाबे जब घर संगी
::::काहापाबे सुखसांती, बिछा जही प्यार रे।
अपन बनौकी बर, दुख तैहा ओला देहे
::::भोग-लोभ करकर , बिगाड़े संसार रे।
सबोके महत्व हे जी, खाद्य श्रृंखला जाल म
::::छोटे नोहै कहुं जीव, करले बिचार रे।
नदि नाला जंगल ले, उपजे गांव गांव ह
::::रुखराई जीवजन्तु, आज तै सवार रे।
</poem>
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