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समय की स्याहियों हमारी देहों ने सुने भी, कहे भी,वे सन्देशे, जो आज स्पर्शों के सूखने का वक्त है येनाम रहे,यह हमारा आखिरी ख़तजब भी मिले, आखिरी दस्तख़त।पिछले स्पर्शों से ही मिले,अगले स्पर्शों को आयाम नये!
अकेला तुम्हारा ही नाम था, इस खत्म होते सफरनामें चढ़ती दोपहरियों में, अस्थिर अंगों के,बड़े बदनाम थे हमये स्थिर आकर्षण, तुम्हारे नाम सेमधुररंजित होकर रह जाते हैं, मन, दृष्टि, दर्पण, हाल में गुज़रे जमाने मेंजरूरी तो देहों की भाषा, कभी कहीं लिखी नहीं हैजाती, हम लिखेंलिपियों में केवल अक्षर बँधते हैं, इन आँसुओं की उम्र कितनी हैबाहों में बँधते हैं तन,सुबह सी ताज़गी है भीगने हम क्यों रहते, स्पर्शों को मोहताज?वे सपने ही क्या, जो पलकों मेंसिमटे, शाम सहमे रहें,प्यासे भागे, प्रिय के तपते अधरों तकनहीं गये, लिखने-लिखाने में।... आयाम नये!
बता तो दें वृथा की वसीयतों की नींव में क्या हैहमने वसन्त को छुआ,सनद रह जाएँगेजिया उसे, गीले खतों पर भीगते अक्षर।समय की स्याहियों के सूखने का वक्त है येजीवित नियति,यह हमारा आखिरी ख़तगति दी, प्रवाह दिया, आखिरी दस्तख़त।और कैसे देते हम प्यार को उम्र?हदें इस उम्र की भी थीं, व्यथाएँ वहाँ से आगे नहीं जातींहमने हर साँ में प्यार का निर्वाह किया,अगर तुम देख पातेअपनत्व की सीमाएँ, सरहदें दर्द की बनाईं भी हमने और तोड़ीं भी थीं, हमें तो दिख नहीं पातीं।अकेला वर्जनाओं को कभी नागफनी, नागपाश नहीं था कोई धुआँबनने दिया, वह धुओं के काफिलों का सिलसिला-सा थाबहुत कुछ और भी था तुम्हें लिखने कोदेहों में ही सिमटे रहे, अधूरी रह गई यह आख़िरी पाती।देहों के उन्माद बुलाये तो हमें नहीं थेमिला, खुला नीला आकाश, खुद-ब-खुद आये हैं हरकारेहमारे द्वार पर पढ़ने लगी है-एक आखिरी दस्तकसमय की स्याहियों देहरियों के सूखने का वक्त है येभीतर ही मने उत्सव,यह हमारा आखिरी ख़त, आखिरी दस्तख़त।ये वसन्त आगे नहीं गये!... आयाम नये!
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