वसन्त को छुआ / महेश सन्तोषी
हमारी देहों ने सुने भी, कहे भी,
वे सन्देशे, जो आज स्पर्शों के नाम रहे,
जब भी मिले, पिछले स्पर्शों से ही मिले,
अगले स्पर्शों को आयाम नये!
चढ़ती दोपहरियों में, अस्थिर अंगों के,
ये स्थिर आकर्षण,
मधुररंजित होकर रह जाते हैं, मन, दृष्टि, दर्पण,
देहों की भाषा, कभी कहीं लिखी नहीं जाती,
लिपियों में केवल अक्षर बँधते हैं,
बाहों में बँधते हैं तन,
हम क्यों रहते, स्पर्शों को मोहताज?
वे सपने ही क्या, जो पलकों में सिमटे, सहमे रहें,
प्यासे भागे, प्रिय के तपते अधरों तक नहीं गये,
... आयाम नये!
हमने वसन्त को छुआ, जिया उसे,
जीवित नियति, गति दी, प्रवाह दिया,
और कैसे देते हम प्यार को उम्र?
हमने हर साँ में प्यार का निर्वाह किया,
अपनत्व की सीमाएँ, बनाईं भी हमने और तोड़ीं भी,
वर्जनाओं को कभी नागफनी, नागपाश नहीं बनने दिया,
देहों में ही सिमटे रहे, देहों के उन्माद
हमें नहीं मिला, खुला नीला आकाश,
देहरियों के भीतर ही मने उत्सव,
ये वसन्त आगे नहीं गये!
... आयाम नये!