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दास्ताँ सुनो यारो लामकाँ मकीनों की
बात हो रही है अब इल्म के ज़ख़ीरों की

हर ख़ुशी क़दम चूमे कायनात की उसके
रास आ गयीं जिसको सुह्बतें फ़क़ीरों की

सूर, जायसी, तुलसी और कबीर, ख़ुसरो को
बेबसी से तकती हैं दौलतें अमीरों की

सूफ़ियों की संगत में सब तुझे अता होगा
छोड़ दे अगर चाहत मख़मली ग़लीचों की

जिस्म की सजावट में रह गए उलझकर जो
रूह तक नहीं पहुँची फ़िक़्र उन हक़ीरों की

राहे हक़ पे चलकर ही मंज़िलें मिलेंगी अब
है नहीं जगह कोई बेसबब दलीलों की

देख ले 'रक़ीब' आकर ख़्वाहिशाते जंगल से
है यही हक़ीक़त में राह ख़ुशनसीबों की
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