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दास्ताँ सुनो यारो लामकाँ मकीनों की / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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दास्ताँ सुनो यारो लामकाँ मकीनों की
बात हो रही है अब इल्म के ज़ख़ीरों की
लामकाँ मकीनों की, सूफियों की पीरों की
बात कर रहे हैं हम इल्म के ज़ख़ीरों की
हर ख़ुशी क़दम चूमे कायनात की उसके
रास आ गईं जिसको सुह्बतें फ़क़ीरों की
सूर, जायसी, तुलसी और कबीर, ख़ुसरो को
बेबसी से तकती हैं दौलतें अमीरों की
जिस्म की सजावट में रह गए उलझकर जो
रूह तक नहीं पहुँची फ़िक़्र उन हक़ीरों की
हाथ ही में कातिब ने लिख दिया है मुस्तकबिल
इल्म हो जिसे पढ़ ले ये ज़बां लकीरों की
राहे हक़ पे चलकर ही मंज़िलें मिलेंगी अब
है नहीं जगह कोई बेसबब नज़ीरों की
देख ले 'रक़ीब' आकर गर नहीं यकीं तुझको
इक गुनाह से पहले जिंदगी असीरों की