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{{KKRachna
|रचनाकार=आनंद कुमार द्विवेदी
|अनुवादक=
|संग्रह=जरिबो पावक मांहि / आनंद कुमार द्विवेदी
}}
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<poem>
तुमने तो कह दिया
हँस कर
मुझे
पागल
माँ की एक बात याद आ रही है
तभी से
और
सोंच रहा हूँ
काश तुम्हारी जबान पर बैठी होती
'सरस्वती' |
_________________________



करना चाहता हूँ
एकदम नई शुरुआत
पर
हे प्रिय मृत्यु !
तेरे सहयोग के बिना
यह संभव नहीं |

और हे प्रिय जीवन !

खुश हूँ
बल्कि
साफ कहूँ तो
तूने उम्मीद से ज्यादा निभाया है
काश मैं भी किसी के प्रति
इतनी
वफादारी निभा पाता |
______________________



सर्दियों में
सूरज
बहूऊऊऊउत दूर हो जाता है धरती से
तब कितनी अच्छी लगती है न धूप !
सच्ची बताना
दूर होने
और फिर अच्छा लगने का चलन
भगवान ने ही बनाया है क्या ?

वैसे एक बात बताऊँ
तुम दूर होकर
बहुत बुरे लगते हो
हाँ !


</poem>
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