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बातें है बातों का क्या / आनंद कुमार द्विवेदी
Kavita Kosh से
तुमने तो कह दिया
हँस कर
मुझे
पागल
माँ की एक बात याद आ रही है
तभी से
और
सोंच रहा हूँ
काश तुम्हारी जबान पर बैठी होती
'सरस्वती' |
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करना चाहता हूँ
एकदम नई शुरुआत
पर
हे प्रिय मृत्यु !
तेरे सहयोग के बिना
यह संभव नहीं |
और हे प्रिय जीवन !
खुश हूँ
बल्कि
साफ कहूँ तो
तूने उम्मीद से ज्यादा निभाया है
काश मैं भी किसी के प्रति
इतनी
वफादारी निभा पाता |
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सर्दियों में
सूरज
बहूऊऊऊउत दूर हो जाता है धरती से
तब कितनी अच्छी लगती है न धूप !
सच्ची बताना
दूर होने
और फिर अच्छा लगने का चलन
भगवान ने ही बनाया है क्या ?
वैसे एक बात बताऊँ
तुम दूर होकर
बहुत बुरे लगते हो
हाँ !