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बड़े अज़ीब मकाँ उम्र भी दिखाती है।है
हज़ार आँसुओं से जिंदगी रूलाती है।
खड़े दरख़्त मगर घूमती हुई छाया,
कभी करीब, कभी दूर-दूर जाती है।
कभी सफ़र न रूका साथ के लिए फिर भी,
कभी उम्मीद, कभी दोस्ती रूलाती है।
सुबह से शाम तलक सिर्फ़ खेाजता फिरता,
फिर भी मंजिल मेरी कहीं नज़र न आती है।
कभी गुनाह लगे तो कभी सवाब लगे,
किसी पानी पे नदी कौन ठहर पाती है।
</poem>
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