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11:25, 13 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दीपिका केशरी
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|संग्रह=
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<poem>
इन दिनों हम नहीं मिलते
क्यूंकि
हम दोनों मिलना जरूरी नहीं समझते
या ये कहें कि मिल चुके हैं
इतनी बार की अब मिलना भी जरूरी नहीं लगता !
दिसंबर भी गुजर जाने को है
जैसे गुजर चुकी है
पिछली जनवरी
फरवरी मार्च
कुल मिलाकर ग्यारह महीने
अभी दिसंबर बाकी है गुजर जाने को !
एक अधूरे दिसंबर में तुमसे
अधूरी मुलाकात
न जाने कब तक याद रहेगी
ये अधूरी बात,
फिलहाल तुम व्यस्त हो
और मैं
दिल्ली में अपनी रातें गिन रही हूँ !
</poem>
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