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10:40, 14 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राकेश पाठक
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<poem>
आज मौन बोलो
उसे ही सुनना है !
इस मौन के उच्चारण में
जड़ता एकालापी नहीं होगी !
अभिप्राय वाली कोई मूक अभिनय भी नहीं !
हमसंगी नृत्य के कोई धुन भी नहीं !
न ही कोई मौन की कथकीय मुद्रा !
इस चुप्पी में कोई एकसार स्वर भी नहीं होगा !
इस चुप्पी में शब्द भी कहीं रखे नहीं होंगे !
भले ही मचल रही हो वर्ण की मछलियाँ
रोपे हुए आहों को साथ लिए
गलफड़े से चीख़ भी रही होंगी यें !
उस आद्र चीख़ की सांद्रता में
मौन भी मुखर होगा अवश्य ही !
पर यह चुप्पी के चीख,
मौन का चीत्कार वहाँ होगा ??
जहाँ चस्पाई हुई चुप्पी में
कोई सीता
फिर से दे चुकी होगी
एक और अग्नि परीक्षा !
</poem>
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