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08:53, 20 जनवरी 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार मुकुल
|संग्रह=
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avita}}
<poem>
कबहूं कबहूं बदरिया छात रहे दुख के
सगरे फैलल अइसन विनाश त ना रहे।
ललाई लउकत रहे पहिलहूं फजिरे
अइसन खूनाइल अकाश त ना रहे।
हमनी टूटत रहीं, जुडि़यो जात रहीं जा
जवनवा सब अइसन हताश त ना रहे।
चलत रहीं जा मथवा बंधले कफनियां
सुरतिया सबके अइसन लाश त ना रहे।
कबहूं कबहूं चढत रहे थोड़न के सर प
भुलाइल सभ के होश-हवाश त ना रहे।
फैज के लिए </poem>