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कबहूं कबहूं बदरिया छात रहे दुख के
सगरे फैलल अइसन विनाश त ना रहे।
ललाई लउकत रहे पहिलहूं फजिरे
अइसन खूनाइल अकाश त ना रहे।
हमनी टूटत रहीं, जुडि़यो जात रहीं जा
जवनवा सब अइसन हताश त ना रहे।
चलत रहीं जा मथवा बंधले कफनियां
सुरतिया सबके अइसन लाश त ना रहे।
कबहूं कबहूं चढत रहे थोड़न के सर प
भुलाइल सभ के होश-हवाश त ना रहे।

फैज के लिए </poem>
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