भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुरतिया सबके अइसन लाश त ना रहे / कुमार मुकुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{{KKCatK​​ avita}}

 
कबहूं कबहूं बदरिया छात रहे दुख के
सगरे फैलल अइसन विनाश त ना रहे।
ललाई लउकत रहे पहिलहूं फजिरे
अइसन खूनाइल अकाश त ना रहे।
हमनी टूटत रहीं, जुडि़यो जात रहीं जा
जवनवा सब अइसन हताश त ना रहे।
चलत रहीं जा मथवा बंधले कफनियां
सुरतिया सबके अइसन लाश त ना रहे।
कबहूं कबहूं चढत रहे थोड़न के सर प
भुलाइल सभ के होशो-हवाश त ना रहे।

फैज के लिए