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16:16, 4 अप्रैल 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र
|संग्रह=पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़ / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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<poem>
बरसात प्यार की हो सारा जहाँ सजल हो।
नफ़रत की रेत भीगे दहशत न अब सफल हो।
नाले की गंदगी है समुदाय की ज़रूरत,
बहती हुई नदी में पर साफ शुद्ध जल हो।
देवों के शीश पर चढ़ ये हो गया है पागल,
ऐसा करो प्रभो कुछ फिर कीच का कमल हो।
राजा बसे हैं जिनमें ऐसे किले बहुत हैं,
रहते हों जिसमें मुफ़्लिस ऐसा भी एक महल हो।
गर्मी की दोपहर को पूनम की रात लिखना,
गर है यही ग़ज़ल तो मुझसे न अब ग़ज़ल हो।
</poem>
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