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|रचनाकार= मैथिलीशरण गुप्त
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|पीछे=जयद्रथ-वध / प्रथम सर्ग / भाग १ / मैथिलीशरण गुप्त
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|सारणी=जयद्रथ-वध / मैथिलीशरण गुप्त
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ज्यों भेद जाता भानु का कर अन्धकार-समूह को,<br>
वह पार्थ-नन्दन घुस गया त्यों भेद चक्रव्यूह को।<br>
थे वीर लाखों पर किसी से गति न उसकी रुक सकी,<br>
सब शत्रुओं की शक्ति उसके सामने सहसा थकी।।<br>
पर साथ भी उसके न कोई जा सका निज शक्ति से,<br>
था द्वार रक्षक नृप जयद्रथ सबल शिव की शक्ति से।<br>
अर्जुन बिना उसको न कोई जीत सकता था कहीं,<br>
थे किन्तु उस संग्राम में भवितव्यता-वश वे नहीं।।<br>
तब विदित कर्ण-कनिष्ठ भ्राता बाण बरसा कर बड़े,<br>
‘‘रे खल ! खड़ा रह’’ वचन यों कहने लगा उससे कड़े।<br>
अभिमन्यु ने उसको श्रवण कर प्रथम कुछ हँसभर दिया।<br>
फिर एक शर से शीघ्र उसका शीश खण्डित कर दिया।<br>
यों देख मरते निज अनुज को कर्ण अति क्षोभित हुआ,<br>
सन्तप्त स्वर्ण-समान उसका वर्ण अति शोभित हुआ, <br>
सौभद्र पर सौ बाण छोड़े जो अतीव कराल थे, <br>
अतः ! बाण थे वे या भयंकर पक्षधारी व्याल थे।। <br>
अर्जुन-तनय ने देख उनको वेग से आते हुए, <br>
खण्डित किया झट बीच में ही धैर्य दिखलाते हुए,<br>
फिर हस्तलाघव से उसी क्षण काट के रिपु चाप को,<br>
रथ, सूत्र, रक्षक नष्ट कर सौंपा उसे सन्ताप को।<br>
यों कर्म को हारा समझकर चित्त में अति क्रुद्ध हो,<br>
दुर्योधनात्मक वीर लक्ष्मण या गया फिर युद्ध को।<br>
सम्मुख उसे अवलोक कर अभिमन्यु यों कहने लगा, <br>
मानो भयंकर सिन्धु-नद तोड़कर बहने लगा-<br>
‘‘तुम हो हमारे बन्धु इससे हम जताते हैं तुम्हें,<br>
मत जानियो तुम यह कि हम निर्बल बताते हैं तुम्हें,<br>
अब इस समय तुम निज जनों को एक बार निहार लो,<br>
यम-धाम में ही अन्यथा होगा मिलाप विचार लो।’’<br>
उस वीर को, सुनकर वचन ये, लग गई बस आग-सी,<br>
हो क्रुद्ध उसने शक्ति छोड़ी एक निष्ठुर नाग सी।।<br>
अभिमन्यु ने उसको विफल कर ‘पाण्डवों की जय’ कही<br>
फिर शर चढ़ाया एक जिसमें ज्योति-सी थी जग रही।<br>
उस अर्धचन्द्राकार शर ने छूट कर कोदण्ड से,<br>
छेदन किया रिपु-कण्ठ तत्क्षण फलक धार प्रचण्ड से,<br>
होता हुआ इस भाँति भासित शीश उनका गिर पड़ा, <br>
होता प्रकाशित टूट कर नक्षत्र ज्यों नभ में बड़ा।।<br>
तत्काल हाहाकार-युत-रिपु-पक्ष में दुख-सा छा गया। <br>
फिर दुष्ट दुःशासन समर में शीघ्र सम्मुख आ गया।<br>
अभिमन्यु उसको देखते ही क्रोध से जलने लगा,<br>
निश्वास बारम्बार उसका उष्णतर चलने लगा।<br>
रे रे नराधम नारकी ! तू था बता अब तक कहाँ ?<br>
मैं खोजता फिरता तुझे सब ओर कब से कहूँ यहाँ।<br>
यह देख, मेरा बाण तेरे प्राण-नाश निमित्त है,<br>
तैयार हो, तेरे अघों का आज प्रायश्चित है।<br>
अब सैनिकों के सामने ही आज वध करके तुझे,<br>
संसार में माता-पिता से है उऋण होना मुझे।<br>
मेरे करों से अब तुझे कोई बचा सकता नहीं।<br>
पर देखना, रणभूमि से तू भाग मत जाना कहीं।<br><br>


कह यों वचन अभिमन्यु ने छोड़ा धनुष से बाण को, <br>
रिपु भाल में वह घुस गया झट भेद शीर्ष-त्राण को,<br>
तब रक्त से भीगा हुआ वह गिर पड़ा पाकर व्यथा, <br>
सन्ध्या समय पश्चिम-जलधि में अरुण रवि गिरता यथा <br>
मूर्च्छित समझ उसको समर से ले गया रथ सारथी,<br>
लड़ने लगा तब नृप बृहद्बल उचित नाम महारथी।<br>
कर खेल क्रीड़ासक्त हरि ज्यों मारता करि को कभी,<br>
मारा उसे अभिमन्यु ने त्यों छिन्न करके तनु सभी।।<br>
उस एक ही अभिमन्यु से यों युद्ध जिस जिस ने किया।<br>
मारा गया अथवा समर से विमुख होकर जिया।<br>
जिस भाँति विद्युतद्दाम से होती सुशोभित घन-घटा,<br>
सर्वत्र छिटकाने लगा वह समर में शस्त्रच्छटा।।<br>
तब कर्ण द्रोणाचार्य से साश्चर्य यों कहने लगा-<br>
‘‘आचार्य देखो तो नया यह सिंह सोते से जगा।<br>
रघुवर-विशिख से सिन्धु सम सब सैन्य इससे व्यस्त हैं !<br>
यह पार्थ-नन्दन पार्थ से भी धीर वीर प्रशस्त है !<br>
होना विमुख संग्राम से है पाप वीरों को महा,<br>
यह सोचकर ही इस समय ठहरा हुआ हूँ मैं यहाँ।<br>
जैसे बने अब मारना ही योग्य इसको है यहीं,<br>
सच जान लीजे अन्यथा निस्तार फिर होगा नहीं।’’<br>
वीराग्रणी अभिमन्यु ! तुम हो धन्य इस संसार में,<br>
शत्रु भी यों मग्न हों जिसके शौर्य-पारावार में, <br>
होता तुम्हारे निकट निष्प्रभ तेज शशि का, सूर का,<br>
करते विपक्षी भी सदा गुण-गान सच्चे सूर का। <br> <br>
तब सप्त रथियों ने वहाँ रत हो महा दुष्कर्म में - <br>
मिलकर किया आरम्भ उसको बिद्ध करना मर्म में - <br>
कृप, कर्ण, दु:शासन, सुयोधन, शकुनि, सुत-युत द्रोण भी;<br>
उस एक बालक को लगे वे मारने बहु-विध सभी ||<br>
अर्जुन-ताने अभिमन्यु तो भी अचल सम अविचल रहा,<br>
उन सप्त राथियोंका वहाँ आघात उसने सब सहा |<br>
पर एक साथ प्रहार-करता हो चतुर्दश कर जहाँ,<br>
युग कर कहो, क्या क्या यथायथ कर सके विक्रम वहाँ ?<br>
कुछ देर में जब रिपु-शरों से अश्व उसके गिर पड़े,<br>
तब कूद कर रथ से चला वह, थे जहाँ वे सब खड़े |<br>
जब तक शरीरागार में रहते ज़रा भी प्राण हैं,<br>
करते समर से वीरजन पीछे कभी न प्रयाण हैं ||<br>
फिर नृत्य-सा करता हुआ धन्वा लिए निज हाथ में,<br>
लड़ने लगा निर्भय वहाँ वह शूरता के साथ में |<br>
था यदपि अन्तिम दृश्य यह उसके अलौकिक कर्म का,<br>
पर मुख्या परिचय भी यही था वीरजन के धर्म का ||<br>
होता प्रविष्ट मृगेंद्र-शावक ज्यों गजेन्द्र-समूह में,<br>
करने लगा वह शौर्य त्यों उन वैरियों के व्यूह में |<br>
तब छोड़ते कोदण्ड से सब ओर चंड-शरावली,<br>
मार्तण्ड-मण्डल की उदय की छवि मिली उसको भली ||<br>
यों विकत विक्रम देख उसका धैर्य रिपु खोने लगे,<br>
उसके भयंकर वेग से अस्थिर सभी होने लगे |<br>
हँसने लगा वह वीर उनकी धीरता यह देख के,<br>
फिर यों वचन कहने लगा तृण-तुल्य उनको लेख के -<br><br>
"मैं वीर तुम बहु सहचरों से युक्त विश्रत सात हो,<br>
एकत्र फिर अन्याय से करते सभी आघात हो |<br>
होते विमुख तो भी अहो! झिलता न मेरा वार है,<br>
तुम वीर कैसे हो, तुम्हें धिक्कार सौ-सौ बार है |"<br>
उस शूर के सुन यों वचन बोला सुयोधन आप यों -<br>
"है काल अब तेरा निकट करता अनर्थ प्रलाप क्यों?<br>
जैसे बने निज वैरियों के प्राण हरना चाहिए,<br>
निज मार्ग निष्कंटक सदा सब भाँति करना चाहिए ||"<br>
"यह कथन तेरे योग्य ही है," प्रथम यों उत्तर दिया,<br>
खर-तर-शरों से फिर उसे अभिमन्यु ने मूर्छित किया |<br>
उस समय ही जो पार्श्व से छोड़ा गया था तान के,<br>
उस करना-शर ने चाप उसका काट डाला आन के ||<br>
तब खींचकर खर-खड्ग फिर वह रत हुआ रिपु-नाश में,<br>
चमकीं प्रलय की बिजलियाँ घनघोर-समराकाश में |<br>
पर हाय! वह आलोक-मण्डल अल्प ही मण्डित हुआ,<br>
वंचक-विपक्षी वृन्द से वह खड्ग भी खण्डित हुआ |<br>
यों रित्त-हस्त हुआ जहाँ वह वीर रिपु-संघात में,<br>
घुसने लगे सब शत्रुओं के बाण उसके गात में |<br>
वह पाण्डु-वंश प्रदीप यों शोभी हुआ उस काल में -<br>
सुंदर सुमन ज्यों पड़ गया हो कंटकों के जाल में ||<br>
संग्राम में निज-शत्रुओं की देखकर यह नीचता<br>
कहने लगा वह यों वचन दृग युग-करों से मींचता -<br>
"नि:शस्त्र पर तुम वीर बनकर वार करते हो अहो!<br>
है पाप तुमको देखना भी पामरों! सम्मुख न हो!!<br><br>
दो शस्त्र पहले तुम मुझे, फिर युद्ध सब मुझसे करो,<br>
यों स्वार्थ-साधन के लिए मत पाप-पथ में पड़ धरो |<br>
कुछ प्राण-भिक्षा मैं न तुमसे माँगता हूँ भीति से,<br>
बस शस्त्र ही मैं चाहता हूँ धर्म-पूर्वक नीति से ||<br>
कर में मुझे तुम शस्त्र देकर फिर दिखाओ वीरता,<br>
देखूँ, यहाँ मैं फिर तुम्हारी धीरता, गंभीरता |<br>
हो सात क्या, सौ भी रहो तो भी रुलाऊँ मैं तुम्हें,<br>
कर पूर्ण रण-लिप्सा अभी क्षण में सुलाऊँ मैं तुम्हें ||<br>
नि:शस्त्र पर आघात करना सर्वथा अन्याय है |<br>
स्वीकार करता बात यह सब शूर-जन समुदाय है |<br>
पर जानकर भी हा! इसे आती न तुमको लाज है,<br>
होता कलंकित आज तुमसे शूरवीर-समाज है ||<br>
हैं नीच ये सब शूर पर 'आचार्य!" तुम आचार्य हो,<br>
वरवीर-विद्या-विज्ञ मेरे तात-शिक्षक आर्य हो |<br>
फिर आज इनके साथ तुमसे हो रहा जो कर्म है,<br>
मैं पूछता हूँ, वीर का रण में यही क्या धर्म है ?<br>
या सत्य है कि अधर्म से मैं निहित होता हूँ अभी,<br>
पर शीघ्र इस दुष्कर्म हा तुम दण्ड पाओगे सभी |<br>
क्रोधाग्नि ऐसी पाण्डवों की प्रज्ज्वलित होगी यहाँ,<br>
तुम शीघ्र उसमें भस्म होगे तूल-तुल्य जहाँ तहां ||<br>
मैं तो अमर होकर यहाँ अब शीघ्र सुरपुर को चला,<br>
पर याद रखो, पाप का होता नहीं है फल भला |<br>
तुम और मेरे अन्य रिपु पामर कहावेंगे सभी,<br>
सुनकर चरित मेरा सदा आँसू बहावेंगे सभी ||<br>
हे तात! हे मातुल! जहाँ हो प्रणाम तुम्हें वहीं,<br>
अभिमन्यु का इस भाँति मरना भूल न जाना कहीं!"<br>
कहता हुआ वह वीर यों रण-भूमि में फिर गिर पड़ा,<br>
हो भंग श्रृंग सुमेरु गिरी का गिर पड़ा हो ज्यों बड़ा ||<br>
इस भाँति उसको भूमि पर देखा पतित होते यदा,<br>
दु:शील दु:शासन ताने ने शीश में मारी गदा |<br>
दृग बंद कर वह यशोधन सर्वदा को सो गया,<br>
हा! एक अनुपम रत्न मानो मेदिनी का खो गया ||<br><br>
हे वीरवर अभिमन्यु! अब तुम हो यदपि सुर-लोक में,<br>
पर अंत तक रोते रहेंगे हम तुम्हारे शोक में |<br>
दिन-दिन तुम्हारी कीर्ति का विस्तार होगा विश्व में,<br>
तब शत्रुओं के नाम पर धिक्कार होगा विश्व में ||<br>