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न हमसफ़र है न हमनवा है / विकास शर्मा 'राज़'
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न हमसफ़र है न हमनवा है
सफ़र भी इस बार दूर का है
मैं देखकर जिसको डर रहा था
वो साया मुझसे लिपट गया है
अभी टहलते रहो गली में
अभी दरीचा खुला हुआ है
तमाम रंगों से भर के मुझको
वो शख़्स तस्वीर हो गया है
तुम्हीं ने तारीकियाँ बुनी थीं
तुम्हीं ने ये जाल काटना है
नदी भी रस्ता बदल रही है
पहाड़ का क़द भी घट रहा है
चलो कि दरिया निकालते हैं
उठो कि सहरा पुकारता है
</poem>
Shrddha
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