788 bytes added,
03:13, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मेहर गेरा
|अनुवादक=
|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
कहां पे कौन सी शय है नहीं ये अंदाज़ा
बिख़र चुका है मेरी ज़िन्दगी का शीराज़ा
खुला खुला सा है मेरे मकान का माहौल
न कोई छत है न खिड़की न कोई दरवाज़ा
पुराने घाव का अहसास ही नहीं था कम
कि दे दिया है ज़माने ने ज़ख़्म फिर ताज़ा।
</poem>