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{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
जैसा भी है अच्छा या बुरा काट रहे हैं
हम लोग मुक़द्दर का लिखा काट रहे हैं

कुछ मायने रखते नहीं इस दौर में रिश्ते
बेटे ही यहाँ माँ का गला काट रहे हैं

ख़ुशबू के परस्तार उन्हें कैसे कहें हम
फूलों से लदी है जो लता काट रहे हैं

उसको ये गुमाँ है कि ये ताबीज़ अंगूठी
ये टोटके ही उसकी बला काट रहे हैं

‘अज्ञात’ ये जो संत हैं सर्जन से नहीं कम
उपदेश की कैंची से अना काट रहे हैं
</poem>
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