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यूँ ही रहा तो खेती करने वाले नहीं मिलेंगे
आगे चलकर गाँव में रहने वाले नहीं मिलेंगे
खेती करै वो भूखा सोये माल निठ्ल्ले चाभैं
किससे करूँ शिकायत सुनने वाले नहीं मिलेंगे
 
इस कच्ची मिट्टी की नमी सँजोकर रखना वरना
पौधे अपने आप पनपने वाले नहीं मिलेंगे
 
इन्सानियत अगर थोड़ी-सी बची रहे तो अच्छा
नही तो फिर दुख-दर्द समझने वाले नहीं मिलेंगे
 
जिधर उठाओ नज़र झूठ का डंका बजता यारो
इक दिन आयेगा सच कहने वाले नहीं मिलेंगे
 
जिसको देखो आसमान की बातें बस करता है
लगता है ज़मीन पर चलने वाले नहीं मिलेंगे
 
इंतिज़ार में नाहक पलकें आप बिछाये बैठे
ओह क़यामत तक ये मिलने वाले नहीं मिलेंगे
</poem>
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