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{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=वो पता ढूँढें हमारा / डी. एम. मिश्र
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<poem>
ज़माने को ताक़त दिखाने चला है
गरीबों की हस्ती मिटाने चला है

किसी की खु़शी उससे देखी न जाती
हमें सिरफिरा वो सताने चला है

ज़रा उसकी तिरछी निगाहें तो देखो
लगे है बिजलियाँ गिराने चला है

भरी बज़्म में सामने दोस्तों के
तमाशा हमारा बनाने चला है

अभी कल तलक मुझसे कतरा रहा था
जनाज़ा मेरा अब उठाने चला है

ग़ुरूरे अमीरी में डूबा हुआ वो
समंदर की क़ीमत लगाने चला है
</poem>
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