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ज़माने को ताक़त दिखाने चला है / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
ज़माने को ताक़त दिखाने चला है
गरीबों की हस्ती मिटाने चला है
किसी की खु़शी उससे देखी न जाती
हमें सिरफिरा वो सताने चला है
ज़रा उसकी तिरछी निगाहें तो देखो
लगे है बिजलियाँ गिराने चला है
भरी बज़्म में सामने दोस्तों के
तमाशा हमारा बनाने चला है
अभी कल तलक मुझसे कतरा रहा था
जनाज़ा मेरा अब उठाने चला है
ग़ुरूरे अमीरी में डूबा हुआ वो
समंदर की क़ीमत लगाने चला है