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05:19, 22 जनवरी 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|अनुवादक=
|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
इधर से देखो तो यहाँ दिखता है दाग़
उधर से वहाँ
इधर उधर के
मिश्रण के अनगिनत उपायों
के बीच आईने में
दिखते ही रहते हैं धब्बे
धरती पर कब से
ये धब्बे आदमी का पीछा कर रहे हैं
आदम के चेहरे पर थे धब्बे
या साँप की नज़र में
राम, रावण, सीता या यूनानियों की हेलेन
का बहुत सारा क़िस्सा इन्हीं धब्बों का है
बहुत सारी लड़ाइयाँ, बहुत सारे वैचारिक ढकोसले
धब्बों से ही पैदा हुए
वक़्त के साथ
जटिल हुआ है पहचानना कि क्या धब्बा है और क्या नहीं
लोग डरते हैं कि सफ़ चमकता चेहरा
क्यों कैसे छिप गया है।
जो आदम से आज तक का इतिहास नहीं छिपा सका।
</poem>