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01:04, 24 मार्च 2019 {{KKRachna
|रचनाकार=सुशील सिद्धार्थ
|अनुवादक=
|संग्रह=बोली बानी / जगदीश पीयूष
}}
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<poem>
बागन बागन कहै चिरैया
होइ जायो हुसियार जमाना जालिम है
जल जमीन जंगल पर काबिज
गुंडन के सरदार जमाना जालिम है
नदी पियासी ख्यात भुखाने
बिरवा सुलगैं तर ते
डग्ग डग्ग पर पौरुखु
माफी मांगि रहा डालर ते
दिन पर दिन गरमाय रहा है
लासन क्यार बजार जमाना जालिम है
लालच के पंजन मा फंसिगै
सुआ जैसि या धरती
कट्टाधारी रोजु होति हैं
राजनीति मा भरती
होरी धनिया की नट्टी पर
टेइ रहे तलवार जमाना जालिम है
कउनौ अजगरु लीलि रहा है
हरियाली खुसियाली
गंगा बनिगै मानौ
मैला ढ्वावै वाली नाली
अमरीकी बादत ते छूटै
तेजाबी बउछार जमाना जालिम है
बखत समरुआ बाजा जइसन
आजु बजि रहा भइया
नयी लड़ाई बल्दी फिरि
मैदान सजि रहा भइया
याक जंग फिरि लड़बै
चाहै बीतैं बरस हजार जमाना जालिम है
</poem>