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<Poem>
कभी नहीं होता,
पर होने की कगार पर सदा टँगा-सा,
मेरा सिर — मत्यु का मुखौटा,
लाया जाता है प्रकाश में ।
कभी नहीं होता, पर होने की कगार पर सदा टंगा-सा,मेरा सिर-मत्यु का मुखौटा, लाया जाता है प्रकाश में।छाया पड़ती आर-पार गाल के और मैं, होंठ हिलाता हूँ छूने को;
लेकिन मेरी पहुँच महज छूने तक ही सीमित रह जाती,
भले आत्मा कितना ही बाहर निकाल कर गरदन झाँके।झाँके । 
निरख रहीं हों वे गुलाब, सोना, आँखें या दृश्य भला-सा
ये मेरी इंद्रियाँ इन्द्रियाँ आँकती क्रिया चाहने भर की;होने की कामना दृश्य, सोना, गुलाब, दूसरा व्यक्ति वह।वह ।“ करता “करता हूँ मैं प्यार ”- प्यार” — एक , बस , इसी तथ्य परदावा मेरा पूर्णकाम बनने का टिका हुआ है।है ।
'''अंग्रेज़ी अँग्रेज़ी से अनुवाद : रमेशचंद्र रमेशचन्द्र शाह'''
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