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अन्धेरे की पाज़ेब / निदा नवाज़
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09:43, 13 जून 2019
घोंप देती है खँजर
परिचय के सीने में
रो पड़ती है पहाड़ी
शृंखला
शृँखला
सहम जाता है चिनार
मेरे भीतर जम जाती है
ढेर सारी बर्फ़ एक साथ ।
</poem>
अनिल जनविजय
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