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अन्धेरे की पाज़ेब / निदा नवाज़
Kavita Kosh से
अन्धेरे की पाज़ेब पहने
आती है काली गहरी रात
दादी माँ की कहानियों से झाँकती
नुकीले दाँतों वाली चुड़ैल-सी
मारती रहती है चाबुक
मेरी नींद की पीठ पर
काँप जाते हैं मेरे सपने
वह आती है जादूगरनी-सी
बाल बिखेरे
अपनी आँखों के पिटारों में
अजगर और साँप लिए
मेरी पुतलियों के बरामदे में
करती है मौत का नृत्य
अतीत के पन्नों पर
लिखती है कालिख
वर्तमान की नसों में
भर देती है डर
भविष्य की दृष्टि को
कर देती है अन्धा
मेरे सारे दिव्य-मन्त्र
हो जाते हैं बाँझ
घोंप देती है खँजर
परिचय के सीने में
रो पड़ती है पहाड़ी शृँखला
सहम जाता है चिनार
मेरे भीतर जम जाती है
ढेर सारी बर्फ़ एक साथ ।