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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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<poem>ख़्वाहिशें बे पनाह करने में
हम हैं ख़ुद को तबाह करने में

हमने कितने उसूल तोड़ दिए
एक तुझ से निबाह करने में

हम अदालत में केस हार गये
दोस्तों को गवाह करने में

कितनी लाशें बिछाई हैं तुमने
ख़ुद को आलम पनाह करने में

सारी बस्ती उजाड़ दी तुमने
मेरे घर को तबाह करने में</poem>