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13:14, 25 जून 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=जंगवीर सिंंह 'राकेश'
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
मुझे बनाने थे कुछ गुलाब;
सो मैंने उसके होठों को छुआ;
और ऊँगलियों के पौरवों को फेर दिया,
काग़ज़ पर !!
गुलाब बन गए;
मुझे बनानी थी इक झील की तस्वीर;
सो मैंने चूम लीं उसकी पलकें;
और;
मैं जाने लगा;
अचानक उसकी आवाज़ आई;
ज़रा ठहरो;
मैं रूका, मैंने देखा;
वह झील उतर आई है उसकी आँखों में;
मुझे बनानी थी
एक पृष्ठ पर कोई छोटी पहाड़ी;
सो मेरी नज़र गई उसकी नाक पर;
जो ज़रा मोटी है;
मगर,
उसके चहरे की पृष्ठ भूमि पर खड़ी है
किसी पहाड़ी की तरह;
मुझे बनाने थे चाँद और सूरज;
सो मैंने देखा उसकी जबीं पर;
लाल और पीली बिन्दिया को;
जो सवेरे देखने पर लगती है;
उगते सूरज की तरह;
और शाम में टहलते चाँद के जैसी;
मुझे बनानी थी
सुन्दर वन डेल्टा की पेंटिंग;
सो मैंने ग़ौर किया;
उसके बदन के उतार-चढ़ाव पर;
कि इक खूबसूरत-सी नदी बह रही हो उसमें;
और वह नदी,
शरीर की बाहरी पटल पर छोड़ती जा रही हो;
सौन्दर्य की मिट्टी के छोटे-छोटे खूबसूरत मुहाने.
मुझे बनानी थी;सुनहरी तितलियाँ;
सो मैंने उसके कानों के लिए झुमके लिए;
और पहना दिए,
उसे सोते वक़्त;
सुब्ह-सुब्ह जब धूप की पहली किरण पड़ी;
उन झुमको पर;
तो लगा वह सुनहरी तितलियाँ उड़ रही हैं
कानपुर शहर में;
मुझे बनानी थी; कहीं पर ख़ुशियों की दुकान;
सो मैंने चुन लिया इक उदास लड़की का ख़ालीपन;
और अपनी ख़ुशियों से भर दिया उसे;
अब वह बाँट रही है;
दुनिया भर में ख़ुशियाँ;
और,
आख़िरश!!
मुझे बनाने थे;
किसी शक़्ल में जहान-भर के दुःख;
सो मैंने आइना देखा;
और देखा..........!!
</poem>