देहु दीदार बिकार दूरि करि, तब मेरा मन मांनै॥308॥
टिप्पणी: ख-लहरी अंत न पारा।
'''भावार्थ''' - कबीर कहते हैं हे माधव हे, ईश्वर, हे प्रभु तुम मुझ पर दया कब करोगे। मेरे भीतर काम, क्रोध व अहंकार विष के रूप में एकत्रित होते जा रहे हैं। यह मोह- माया, यह सांसारिकता मुझसे छूट नहीं पा रही है। तुम मुझे इन सबसे कब मुक्त करोगे ? जिस बिंदु (वीर्य) से मेरे जीवन की उत्पत्ति हुई है (उसी बिंदु से) उसी दिन से मैं सांसारिक वासनाओं में डूबा हुआ हूँ। मैंने जीवन -कर्म की सच्चाई को अभी तक नहीं पाया है। काम, क्रोध, लालच, मोह व द्वेष चोरों की भाँति मेरे भीतर छिपे हुए हैं, ये मेरे जीवन की शांति को चुरा रहे हैं। मैं अपना जन्म इन्हीं चोरों के साथ रहकर नष्ट कर रहा हूँ। मेरे तन तथा मन को कामना और लालसा रूपी साँप ने डस लिया है उसकी ज़हरीली लहरों का कोई भी किनारा नहीं है। मैं उसी में डूबा हुआ हूँ। मैं उस ईश्वर को ढूंढ रहा हूं जो मेरा यह विष उतार दे लेकिन ईश्वर मुझे नहीं मिल नहीं रहे हैं। यह सांसारिकता रूपी विष मेरे भीतर विकराल होता जा रहा है, फैलता जा रहा है। कबीर कहते हैं इस दुख को मैं किससे कहूँ क्योंकि मेरा यह दुख सिर्फ मैं ही जानता हूं। इसे मैं ही भुगत रहा हूं। मेरे भीतर इन दूषित कामनाओं ने, दूषित इच्छाओं ने मेरे शरीर को, मेरे मन पूरी तरह से अपने बस में कर लिया है। हे ईश्वर! मुझे दर्शन दो और मेरे इन सभी दोषों को दूर करो। मेरे जीवन को पार लगाने वाले, मुझे विषाक्त विषयों से दूर करने वाले एकमात्र तुम ही हो प्रभु। तुमसे मिलकर ही मेरा मन संतुष्ट होगा।
*विशेष -कबीर परमात्मा से बड़ा किसी को नहीं मानते हैं। उनके अनुसार हमारा जन्म सद्कार्यों के लिए होता है लेकिन हम सांसारिक मोहमाया, कामनाओं व इच्छाओं में इस प्रकार डूब जाते हैं कि हम अपने जीवन का वास्तविक धर्म भूल जाते हैं तब एक मात्र ईश्वर भक्ति है जो हमें सही मार्ग की ओर ले जा सकती है और जीवन की विषाक्तता को दूर कर सकती है।
मैं बन भूला तूँ समझाइ।
रांम कौ नाँव अधिक रस मीठौं, बारंबार पीवै रे॥310॥
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|भावार्थ=कबीर कहते हैं हे माधव हे, ईश्वर, हे प्रभु तुम मुझ पर दया कब करोगे। मेरे भीतर काम, क्रोध व अहंकार विष के रूप में एकत्रित होते जा रहे हैं। यह मोह- माया, यह सांसारिकता मुझसे छूट नहीं पा रही है। तुम मुझे इन सबसे कब मुक्त करोगे ? जिस बिंदु (वीर्य) से मेरे जीवन की उत्पत्ति हुई है (उसी बिंदु से) उसी दिन से मैं सांसारिक वासनाओं में डूबा हुआ हूँ। मैंने जीवन -कर्म की सच्चाई को अभी तक नहीं पाया है। काम, क्रोध, लालच, मोह व द्वेष चोरों की भाँति मेरे भीतर छिपे हुए हैं, ये मेरे जीवन की शांति को चुरा रहे हैं। मैं अपना जन्म इन्हीं चोरों के साथ रहकर नष्ट कर रहा हूँ। मेरे तन तथा मन को कामना और लालसा रूपी साँप ने डस लिया है उसकी ज़हरीली लहरों का कोई भी किनारा नहीं है। मैं उसी में डूबा हुआ हूँ। मैं उस ईश्वर को ढूंढ रहा हूं जो मेरा यह विष उतार दे लेकिन ईश्वर मुझे नहीं मिल नहीं रहे हैं। यह सांसारिकता रूपी विष मेरे भीतर विकराल होता जा रहा है, फैलता जा रहा है। कबीर कहते हैं इस दुख को मैं किससे कहूँ क्योंकि मेरा यह दुख सिर्फ मैं ही जानता हूं। इसे मैं ही भुगत रहा हूं। मेरे भीतर इन दूषित कामनाओं ने, दूषित इच्छाओं ने मेरे शरीर को, मेरे मन पूरी तरह से अपने बस में कर लिया है। हे ईश्वर! मुझे दर्शन दो और मेरे इन सभी दोषों को दूर करो। मेरे जीवन को पार लगाने वाले, मुझे विषाक्त विषयों से दूर करने वाले एकमात्र तुम ही हो प्रभु। तुमसे मिलकर ही मेरा मन संतुष्ट होगा।
*विशेष -कबीर परमात्मा से बड़ा किसी को नहीं मानते हैं। उनके अनुसार हमारा जन्म सद्कार्यों के लिए होता है लेकिन हम सांसारिक मोहमाया, कामनाओं व इच्छाओं में इस प्रकार डूब जाते हैं कि हम अपने जीवन का वास्तविक धर्म भूल जाते हैं तब एक मात्र ईश्वर भक्ति है जो हमें सही मार्ग की ओर ले जा सकती है और जीवन की विषाक्तता को दूर कर सकती है।
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|लेखक=उषा दशोरा
|योग्यता=सहायक शिक्षिका (हिंदी)
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