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<span class="mantra_translation">
युग , काल, संवत्सर समय यह सब प्राप्ति रूप है,<br>
उत्तर व् दक्षिण दो अयन, इसके ही अंग स्वरुप हैं।<br>
पाते सकामी चंद्र लोक को, पुनि वहॉं से लौटते,<br>
पुनरावृति का चक्र पुनि-पुनि पुनः पुनरपि काटते॥ [ ९ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
जो ब्रह्मचर्य आध्यात्म तप श्रद्धा से ईश्वर खोजते,<br>
वे उत्तरायण मार्ग से, रवि लोक पाते हैं ऋत मते।<br>
निर्भय अमर यह परम गति , प्राणों का रवि ही केन्द्र है,<br>
पुनि लौट कर आते नहीं , उनका महेश महेंद्र है॥ [ १० ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
रवि छः अरों व् सप्त पहियों युक्त, कुछ इसको कहें,<br>
यह मास् द्वादश वर्ष के द्वादश स्वरुप है अति महे।<br>
यह सूर्य मंडल सूर्य की स्थूल छवि दृष्टव्य है,<br>
वर्षा, ऋतु, और इन्द्रधनुषी , रूप रवि ज्ञातव्य है॥ [ ११ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
प्रत्येक महीना वर्ष का, मानो प्रजापति रूप है,<br>
रथि उसका कृष्ण पक्षे , शुक्ल प्राण स्वरुप है।<br>
कल्याण कामी शुक्ल पक्षे, यज्ञ कर्म निमग्न हैं,<br>
कृष्ण पक्षे , जो सकामी फल मिले संलग्न है॥ [ १२ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
निशि-दिवस दोनों प्रजापति , रात्री रयिः दिन प्राण है,<br>
जो दिवस में रति लगन रहते, कहाँ उनका त्राण है।<br>
प्राणों को अपने क्षीण कर गंतव्य अपना भूलते,<br>
जो रति में रत शास्त्रोक्त विधि, हैं ब्रह्मचारी ऋत मते॥ [ १३ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
यह अन्न ही है प्रजापति का , रूप अति महिमा महे,<br>
आधार प्राणी , प्राण के , बिन अन्न कब कोई रहे।<br>
इस अन्न से ही वीर्य बन , प्राणी चराचर जगत के,<br>
उत्पन्न होते , अतः अन्न ही प्रजापति हैं जगत के॥ [ १४ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
संकल्प व्रत दृढ़ निश्चयी हो, जो प्रजापति का करे,<br>
वे पुत्र कन्या का सृजन कर , सृष्टि संवर्धन करें।<br>
और वे कि जिनमें ब्रह्मचर्य व् सत्य निष्ठा पूर्ण है,<br>
यह ब्रह्मलोक व् ब्रह्म उनको मिलता जो प्रभु पूर्ण है॥ [ १५ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
जो छल कपट व् राग द्वेष से शून्य हैं अति शुद्ध हैं,<br>
जो अनृत भाषण आचरण से, दूर हैं व् विशुद्ध हैं।<br>
ऋत ब्रह्मलोक विशुद्ध उनको ही मिले संशय नहीं,<br>
विपरीत रहते हीन, इस उपदेश का आशय यही॥ [ १६ ]<br><br>
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