प्रथम प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
युग , काल, संवत्सर समय यह सब प्राप्ति रूप है,
उत्तर व् दक्षिण दो अयन, इसके ही अंग स्वरुप हैं।
पाते सकामी चंद्र लोक को, पुनि वहॉं से लौटते,
पुनरावृति का चक्र पुनि-पुनि पुनः पुनरपि काटते॥ [ ९ ]
जो ब्रह्मचर्य आध्यात्म तप श्रद्धा से ईश्वर खोजते,
वे उत्तरायण मार्ग से, रवि लोक पाते हैं ऋत मते।
निर्भय अमर यह परम गति , प्राणों का रवि ही केन्द्र है,
पुनि लौट कर आते नहीं , उनका महेश महेंद्र है॥ [ १० ]
रवि छः अरों व् सप्त पहियों युक्त, कुछ इसको कहें,
यह मास् द्वादश वर्ष के द्वादश स्वरुप है अति महे।
यह सूर्य मंडल सूर्य की स्थूल छवि दृष्टव्य है,
वर्षा, ऋतु, और इन्द्रधनुषी , रूप रवि ज्ञातव्य है॥ [ ११ ]
प्रत्येक महीना वर्ष का, मानो प्रजापति रूप है,
रथि उसका कृष्ण पक्षे , शुक्ल प्राण स्वरुप है।
कल्याण कामी शुक्ल पक्षे, यज्ञ कर्म निमग्न हैं,
कृष्ण पक्षे , जो सकामी फल मिले संलग्न है॥ [ १२ ]
निशि-दिवस दोनों प्रजापति , रात्री रयिः दिन प्राण है,
जो दिवस में रति लगन रहते, कहाँ उनका त्राण है।
प्राणों को अपने क्षीण कर गंतव्य अपना भूलते,
जो रति में रत शास्त्रोक्त विधि, हैं ब्रह्मचारी ऋत मते॥ [ १३ ]
यह अन्न ही है प्रजापति का , रूप अति महिमा महे,
आधार प्राणी , प्राण के , बिन अन्न कब कोई रहे।
इस अन्न से ही वीर्य बन , प्राणी चराचर जगत के,
उत्पन्न होते , अतः अन्न ही प्रजापति हैं जगत के॥ [ १४ ]
संकल्प व्रत दृढ़ निश्चयी हो, जो प्रजापति का करे,
वे पुत्र कन्या का सृजन कर , सृष्टि संवर्धन करें।
और वे कि जिनमें ब्रह्मचर्य व् सत्य निष्ठा पूर्ण है,
यह ब्रह्मलोक व् ब्रह्म उनको मिलता जो प्रभु पूर्ण है॥ [ १५ ]
जो छल कपट व् राग द्वेष से शून्य हैं अति शुद्ध हैं,
जो अनृत भाषण आचरण से, दूर हैं व् विशुद्ध हैं।
ऋत ब्रह्मलोक विशुद्ध उनको ही मिले संशय नहीं,
विपरीत रहते हीन, इस उपदेश का आशय यही॥ [ १६ ]