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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
कर रही है शहर को मिस्मार दीवारों के बीच
कैसी अंधी सी हवा है रौशनी दर रौशनी

कौन सी शय हो गई बेकार दीवारों के बीच
कर रही है शहर को मिस्मार दीवारों के बीच
कुछ न कुछ तो है ज़रर-आसार दीवारों के बीच

जिससे बे-किरदार होती जा रही है ज़िन्दगी

कर रही है शहर को मिस्मार दीवारों के बीच
कैसी अंधी सी हवा है रौशनी दर रौशनी।
</poem>
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