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|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
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सावन की
रिमझिम फुहार
बूंँदों से सोम झरे
बदली -जैसे
आसमान से
भू पर होम करे.

झांँझ-मंँजीरे
पर्ण बने हैं
टीमकी छत-छानी
राई कजरी
गाकर थिरके
ऋतुओं की रानी
अपनी बाहों में
वसुधा को
फिर से व्योम भरे।

लड़कों जैसा
घर का पानी
खेले खोर-गली
झर-झर की
अनुगूंँज बदलकर
छुक-छुक रेल चली
पांँव-पांँव में
चलकर बचपन
पत्थर मोम करे।

देहरी से
परछी तक संध्या
दिन के लेख पढ़े
शीश महल की
खिड़की खुलकर
अपने अर्थ गढ़े
अँखुवाए
बीजों के मुख से
निकले ओम हरे।

-रामकिशोर दाहिया

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