भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बूँदों से सोम झरे/ रामकिशोर दाहिया
Kavita Kosh से
सावन की
रिमझिम फुहार
बूंँदों से सोम झरे
बदली -जैसे
आसमान से
भू पर होम करे.
झांँझ-मंँजीरे
पर्ण बने हैं
टीमकी छत-छानी
राई कजरी
गाकर थिरके
ऋतुओं की रानी
अपनी बाहों में
वसुधा को
फिर से व्योम भरे।
लड़कों जैसा
घर का पानी
खेले खोर-गली
झर-झर की
अनुगूंँज बदलकर
छुक-छुक रेल चली
पांँव-पांँव में
चलकर बचपन
पत्थर मोम करे।
देहरी से
परछी तक संध्या
दिन के लेख पढ़े
शीश महल की
खिड़की खुलकर
अपने अर्थ गढ़े
अँखुवाए
बीजों के मुख से
निकले ओम हरे।
-रामकिशोर दाहिया