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<poem>
बोला कि आफ़ताब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।
चश्मे-बराह ख़्वाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।

क्यों बन्द हूँ दराज़ में संगीन दौर है,
मैं उन्स की किताब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।

मैंने तमाम उम्र में देखा नहीं दुरख़्श,
मैं भी बड़ा अजाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।

शायद किसी की साद है मलबों से दुर्ग के,
कहता है, मैं नवाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।

मशरिक के आफ़ताब करे सुर्ख़रू मुझे,
आता हुआ शबाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।

बाहर ये कौन-कौन है क्या-क्या लिए सवाल,
मैं एक बाज़वाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।
</poem>
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