भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बोला कि आफ़ताब हूँ, दरवाज़ा खोलिए / फूलचन्द गुप्ता
Kavita Kosh से
बोला कि आफ़ताब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।
चश्मे-बराह ख़्वाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।
क्यों बन्द हूँ दराज़ में संगीन दौर है,
मैं उन्स की किताब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।
मैंने तमाम उम्र में देखा नहीं दुरख़्श,
मैं भी बड़ा अजाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।
शायद किसी की साद है मलबों से दुर्ग के,
कहता है, मैं नवाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।
मशरिक के आफ़ताब करे सुर्ख़रू मुझे,
आता हुआ शबाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।
बाहर ये कौन-कौन है क्या-क्या लिए सवाल,
मैं एक बाज़वाब हूँ, दरवाज़ा खोलिए ।