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|रचनाकार=रैनेर मरिया रिल्के
|अनुवादक=अज्ञेय
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<poem>
पत्ते झड़ते हैं,
झड़ते हैं कहीं बड़ी दूरी से
मानो उजड़ते हों स्वर्ग में
सुदूर नन्दन - वन

झड़ते हैं,
भंगिमा है उनकी नकार की,
उत्सर्ग की ।
हजारों तारों के बीच से
रातों में गिरती यह भार-भरी
धरा डूब जाती है एक अकेलेपन में ।

गिरते हैं हम सब ।
ये हाथ भी गिरने वाले हैं ।
और देख लो औरों को भी :
सभी के साथ यह लगा है ।

पर है,
एक है जो गिरने मात्र का सगा है —
जो अशेष स्नेह-भरे करों में
सब को सम्भाले है ।

'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्याययन अज्ञेय'''
</poem>
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